सम्माननीय मित्रों को सादर नमस्कार.... नेट की तकनीकी त्रुटियाँ मेरे लिए नेट से दूरियां ले कर आईं... इसलिए कुछ समय तक उपस्थिति और नेट पठन- पाठन में कमी रही... चाह कर भी पोस्टिंग नहीं हो पाई.... अब कनेक्टिविटी में सुधार प्रतीत हो रहा है.... सो... इस रचना के साथ उपस्थित हूँ...
क्या कभी आतंक के शोले यहाँ बुझ पायेंगे?
चैन के दिन-रात हिस्से, हिंद के कब आयेंगे?
चीखता है जर्रा - जर्रा, माँगता इन्साफ है,
सांप को वे पालते हैं, उनको करते माफ़ हैं,
चीखते जज्बात बहरे कानों में कब जायेंगे?
चैन के दिन-रात हिस्से, हिंद के कब आयेंगे?
आँख से बहने लगे हैं, खून के संग ख्वाब भी,
देख हो कर सुर्ख कैसे, रो रहा मेहताब भी
कल सुबह को ओस भी दहके से नगमे गायेंगे.
चैन के दिन-रात हिस्से, हिंद के कब आयेंगे?
ये ज़मीं है अम्न की, सुख-चैनो भाईचारे की
ये जमीं है बुल्हे की, इकबालो ग़ालिब प्यारे की,
इस जमीं पर कब तलक नापाक किस्से छाएंगे?
चैन के दिन-रात हिस्से, हिंद के कब आयेंगे?
क्या कभी आतंक के शोले यहाँ बुझ पायेंगे?
चैन के दिन-रात हिस्से, हिंद के कब आयेंगे?
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पिछले दिनों दिल्ली में आतंक ने फिर एक नयी गाथा इतिहास में दर्ज कराई.
दुखित और कुपित दिल से कुछ प्रश्न निकलना लाजिम हैं और वाजिब भी....
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सस्वर पठन....
आँख से बहने लगे हैं, खून के संग ख्वाब भी,
ReplyDeleteदेख हो कर सुर्ख कैसे, रो रहा मेहताब भी
कल सुबह को ओस भी दहके से नगमे गायेंगे.
चैन के दिन-रात हिस्से, हिंद के कब आयेंगे?
दिल से निकली नज़्म ... बहुत सुन्दर भाव ..
आपकी रचना के प्रश्नों के समाधान पर विचार करते हुये अनायास ही
ReplyDeleteमस्तुरिया जी के खंड काव्य 'सोना खान के आगी' की पंक्तियाँ याद आ गईं.
अरे नाग तैं काट नहीं त
जी भर के फुफकार तो रे
अरे बाघ तैं मार नहीं त
गरज गरज धुत्तकार तो रे
एक न एक दिन ए माटी के,पीरा रार मचाही रे
नरी कटाही बइरी मन के,नवा सुरुज फेर आही रे.
sundar...aur dil se likhe gaye geet k liye badhai...isee tarah ka lekhan hamen arajak samay k khilaaf chetanaawaan banayegaa.
ReplyDeleteबहुत सुंदर शब्द ,बेहतरीन, सार्थक रचना |
ReplyDelete.
ReplyDeleteये ज़मीं है अम्न की, सुख-चैनो भाईचारे की
ये जमीं है बुल्हे की, इकबालो ग़ालिब प्यारे की,
इस जमीं पर कब तलक नापाक किस्से छाएंगे?
चैन के दिन-रात हिस्से, हिंद के कब आयेंगे? ....
जब तक लोग अपने वतन से प्यार करना नहीं सीखेंगे , परिवेश में फैली अनियमितताओं के खिलाफ उनके खून में उबाल नहीं आएगा तब तक वो दिन-घडी नहीं आएगी जब भारत-भूमि अपनी संतानों पर मुस्कुरा सके।
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मन में उठ रही भावों की तरंगों को
ReplyDeleteआपने बहुत सुन्दर ढंग से अपनी रचना में पिरोया है!
आँख से बहने लगे हैं, खून के संग ख्वाब भी,
ReplyDeleteदेख हो कर सुर्ख कैसे, रो रहा मेहताब भी
कल सुबह को ओस भी दहके से नगमे गायेंगे.
चैन के दिन-रात हिस्से, हिंद के कब आयेंगे?
kitna dard hai is prashn me
बहुत भावपूर्ण ,प्रभावी
ReplyDeleteबेहतरीन रचना....
ReplyDeletebhaavpurn rachna...
ReplyDeleteये कुछ गंभीर प्रश्न हैं हमारे सामने।
ReplyDeleteकल सुबह को ओस भी दहके से नगमे गायेंगे,
ReplyDeleteचौन के दिन-रात हिस्से, हिंद के कब आयेंगे?
आशंका के साथ-साथ आस को भी अभिव्यक्त करती सुंदर रचना।
क्या कभी आतंक के शोले यहाँ बुझ पायेंगे?
ReplyDeleteचैन के दिन-रात हिस्से, हिंद के कब आयेंगे?
सुंदर भविष्य के लिए शुभकामनायें लिए हुए एक सुंदर प्रस्तुति. बधाई.
बहुत बढ़िया।
ReplyDeleteनाग मन ला पोसे के परंपरा सदियों ले चले आत हे, फेर अभी तक ले काबर नहीं चेते इही समझ ले बाहिर हे.
ReplyDeleteकेरा तबहिं न चेतिया जब ढिंग लगी बेर...
आँख से बहने लगे हैं, खून के संग ख्वाब भी,
ReplyDeleteदेख हो कर सुर्ख कैसे, रो रहा मेहताब भी
कल सुबह को ओस भी दहके से नगमे गायेंगे.
चैन के दिन-रात हिस्से, हिंद के कब आयेंगे?
बहुत प्रेरक और सारगर्भित अभिव्यक्ति..बहुत सुन्दर
प्रभावशाली रचना ,आज की चुनौतियों को सामने लाकर आतंकी प्रयासों को बेनकाब करती/हार्दिक स्वागत आपका /सदर,
ReplyDeleteडॉ.भूपेन्द्र
बहुत ही खूबसूरती से दर्द बयां किया है आपने पर शायद फ़िरकापरस्त राजनीती इस देश को कभी वो दिन नसीब नही होने देगी
ReplyDeleteआँख से बहने लगे हैं, खून के संग ख्वाब भी,
ReplyDeleteदेख हो कर सुर्ख कैसे, रो रहा मेहताब भी
कल सुबह को ओस भी दहके से नगमे गायेंगे...
संजय जी कडुवी कहीकत लिओखी है अपने ... अब शव्दों को शोलों में बदलना होगा ... तभी कुछ बदलाव संभव है ...
बहुत प्रेरक और सारगर्भित अभिव्यक्ति..बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत प्रभाव शाली पोस्ट प्रेरक कविता बहुत पसंद आई !
ReplyDeleteबहुत मार्मिक सुंदर रचना !
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आने के लिये आभार !
भाई एस० एम० हबीब साहब बहुत सुन्दर गज़ल बधाई
ReplyDeleteआँख से बहने लगे हैं, खून के संग ख्वाब भी,
ReplyDeleteदेख हो कर सुर्ख कैसे, रो रहा मेहताब भी
कल सुबह को ओस भी दहके से नगमे गायेंगे.
चैन के दिन-रात हिस्से, हिंद के कब आयेंगे? ..
.बहुत प्रेरक और सारगर्भित अभिव्यक्ति..बहुत सुन्दर गज़ल बधाई...
बहुत ही ज्वलंत एह्सासतों से रूबरू कराती रचना ! साभार...
ReplyDeleteचैन का समय आएगा.. पर उसके लिए हम सभी को त्याग करना होगा,
ReplyDeleteपहचानना होगा अपनों को.. और भगाना होगा भेंड की खाल में बसे भेड़ियों को.
आपस के द्वेष को मिटाना होगा.. एक जुट होना पड़ेगा.
संजय,
ReplyDeleteआतंकवाद का विरोध, इन्साफ की आवाज, पल रहें आस्तीन के सांपों पर उत्तम रचना.... बेहतरीन....
स्नेहाशीष....