"वह तोड़ती पत्थर" |
तब से अब तक
बहुत कुछ बदला है...
दसों दिशाओं में उद्धृत हैं
सफलता की गाथाएँ...
गति और प्रगति के
विराट चरणचिह्न
नित्य नुमाया हैं
चन्द्रानन में.....
स्वआनन में भी...
सगर्व... सस्मित...
लेकिन...
तब से अब तक
सूर्य वही है...
उसका प्रचंड तेज भी... बल्कि...
बढ़ ही रहा है,
निर्धन पेट की ज्वाला की भाँति...
भूख - प्यास वही.... अभ्यास वही...
स्वेद सिंचित उच्छ्वास वही...
उस 'पत्थर तोड़ती'
प्रतिमूर्ति की किस्मत...
कृष्ण पक्ष के बढ़ते अंधियारे... और...
घटती चन्द्रकलायें ही हैं...
तब से अब तक.
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दृश देख महाकवि निराला जी की कालजयी रचना अन्तस्पटल में सजीव हो उठी,
बरबस ही कुछ पंक्तियाँ कौंध गयी जेहन में... ससम्मान समर्पित...
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marmsparshi ....bahut sunder bhav.....
ReplyDeleteश्रमजीवी और कृष्णपक्ष का बढ़ता अंधियारा ! हृदयस्पर्शी कविता।
ReplyDeleteलेकिन...
ReplyDeleteतब से अब तक
सूर्य वही है...
उसका प्रचंड तेज भी... बल्कि...
बढ़ ही रहा है,
निर्धन पेट की ज्वाला की भाँति...
भूख - प्यास वही.... अभ्यास वही...
स्वेद सिंचित उच्छ्वास वही...
उस 'पत्थर तोड़ती'
प्रतिमूर्ति की किस्मत...
कृष्ण पक्ष के बढ़ते अंधियारे... और...
घटती चन्द्रकलायें ही हैं...
तब से अब तक. ... jab mann kee vyakulta dam todne lagti hai tab shabd bhawnaaon ke uchhal prawah ko yun hi samette hain , arth dhoondhne ke liye ganga se saagar tak kee yatra karte hain .... kash , kahin to koi vikalp ho
आज 11- 09 - 2011 को आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
ReplyDelete...आज के कुछ खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .तेताला पर
भूख - प्यास वही.... अभ्यास वही...
ReplyDeleteस्वेद सिंचित उच्छ्वास वही...
उस 'पत्थर तोड़ती'
प्रतिमूर्ति की किस्मत...
कृष्ण पक्ष के बढ़ते अंधियारे... और...
घटती चन्द्रकलायें ही हैं...
तब से अब तक.
सटीक एवं संवेदनशील अभिव्यक्ति...
उस 'पत्थर तोड़ती'
ReplyDeleteप्रतिमूर्ति की किस्मत...
कृष्ण पक्ष के बढ़ते अंधियारे... और...
घटती चन्द्रकलायें ही हैं...
तब से अब तक.
यही विडम्बना है.....अंतर्मन को उद्देलित करती पंक्तियाँ....
kuch chiijein kal ke sath bhi nahi badaltin.
ReplyDeleteजी हाँ, कुछ भी नहीं बदला है ...
ReplyDeleteउस 'पत्थर तोड़ती'
ReplyDeleteप्रतिमूर्ति की किस्मत...
कृष्ण पक्ष के बढ़ते अंधियारे... और...
घटती चन्द्रकलायें ही हैं...
तब से अब तक.
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हकीकत भी यही है!
अट्टालिकाओं मे सूरज उगता और झोपडियों मे अंधियारे
ReplyDeleteक्या विकास का मद है ऐसा फ़ाकाकश न लगते प्यारे
Kvita jijivisha ko pradarshit karti hai. aabhar
ReplyDeleteवह तोड़ती पत्थर के संदर्भ आज के परिप्रेक्ष्य में बड़ी कुशलता से लेकर अति विचारणीय रचना लिखी है.
ReplyDeleteअद्भुत!
ReplyDeleteइस रचना के बिम्बों में वही ताज़गी है जो निराला की तोड़ती पत्थर में थी। शायद इसलिए कि तब और आज में इन रचनाओं के पात्र की क़िस्मत में कोई तबदीली नहीं आई है।
सूर्य वही है...
ReplyDeleteउसका प्रचंड तेज भी... बल्कि...
बढ़ ही रहा है,
निर्धन पेट की ज्वाला की भाँति...
लेकिन उस ज्वाला को शांत किस तरह से किया जा सकता है यह आज तक किसी ने सोचा नहीं ...जिन पर सोचने के जिम्मा सोंपा गया था वह खुद ही उनके मुंह का निवाला छीन रहे हैं ...आपने बहुत सुन्दरता से प्रकाश डाला है ...आपका आभार
निर्धन पेट की ज्वाला की भाँति...
ReplyDeleteभूख - प्यास वही.... अभ्यास वही...
स्वेद सिंचित उच्छ्वास वही...
उस 'पत्थर तोड़ती'
प्रतिमूर्ति की किस्मत...
सत्य को कहती अच्छी और मार्मिक प्रस्तुति
गरीबों के दुःख कम नहीं होंगे जब तक सत्ता में बैठे संवेदनशील नहीं हो जाते।
ReplyDeleteप्रतिमूर्ति की किस्मत...
ReplyDeleteकृष्ण पक्ष के बढ़ते अंधियारे... और...
घटती चन्द्रकलायें ही हैं...
तब से अब तक.
संवेदना को झकझोरती रचना
सूर्य का प्रचंड होना और चंद्र कलाओं का घटना - बहुत सही विवेचन दिया है आपने
ReplyDeleteबहुत संवेदनशील और मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteबहुत सार्थक रचना |सुन्दर शब्द चयन |बधाई
ReplyDeleteआशा
संवेदनशील, हृदयस्पर्शी कविता. बधाई.
ReplyDeleteअच्छी और मार्मिक प्रस्तुति
ReplyDeleteदिल को छू गई , बहुत बढ़िया !!!
Bahut Sundar Habib Sahab.. Samvedansheel prastuti.. Aabhar..
ReplyDeleteसत्य को दर्शाती संवेदनशील और मार्मिक प्रस्तुति...
ReplyDeleteजब तक दुनिया है सखे, तब तक पत्थर राज |
ReplyDeleteपत्थर से टकराय के, लौटे हर आवाज ||
लौटे हर आवाज, लिखाये किस्मत लोढ़े,
कर्मों पर विश्वास, करे क्या किन्तु निगोड़े ?
कोई नहीं हबीब, मिला जो उसको अबतक,
जिए पत्थरों बीच, रहेगा जीवन जब तक ||
मार्मिक ... कठोर सत्य ...
ReplyDeleteबहुत संवेदनशील रचना ..
संवेदनशील अभिव्यक्ति........
ReplyDeleteकृष्ण पक्ष के बढ़ते अंधियारे... और...
ReplyDeleteघटती चन्द्रकलायें ही हैं...
बेहतरीन प्रयोग......
बहुत सुन्दर और सटीक प्रस्तुति- मिश्रा जी !
ReplyDeleteनिराला जी का काव्य आज आज भी प्रासंगिक है और कल भी रहेगा
संवेदनशील रचना...!
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