नीला ने अखबार हाथों से छीन लिया – “ डा. साहब, नाश्ता ठंडा हो रहा है, पहले उसे खत्म करें फिर अखबार मिलेगा आपको.” डा. अजीत ने दिखावटी गुस्सा आँखों में लाकर नीला की ओर देखा परन्तु उसे मुस्कुराता देख स्वयम भी मुस्कुरा उठे. “डा. साहब, आपको अपना प्रामिस याद है न?” नीला ने मुस्कुराते हुए कहा- “आज संडे है, और आप हमें फिल्म ले चलने वाले हो आज...” ...पास बैठा उनका पुत्र नन्हा अतीत प्रतिकार कर उठा- “पापा, मम्मी... नहीं, फिल्म नहीं... हम कहीं घूमने जायेंगे” डा. अजीत हल्का ठहाका लगाते बोले- “हा हा हा... सच कहा, एक बन्दर तीन घंटे तक एक स्थान पर कैसे बैठ सकता है भला... लेकिन अतीत बेटा, प्रामिस रखने का सवाल है, आज तो फिल्म ही चलना पडेगा...” तभी पास ही चार्जर में लगा उनका मोबाइल गाने लगा- “जो वादा किया वो निभाना पडेगा....” डा. अजीत आश्चर्यचकित हो प्रश्नवाचक दृष्टी से नीला की ओर देखने लगे तो वह शरारत से हँसते हुए बोली – “मैंने आपकी मोबाईल में इस गाने को रिंग टोन सेट कर दिया है ताकि आप अपना वादा न भूलें”, वह मोबाईल उठा कर बोली –“डा. शर्मा...” और तनिक शशंकित मन से मोबाईल उनकी ओर बढ़ा दिया. नीला के मनोभाव को समझते हुए उन्होंने फोन स्पीकर पर डाल लिया.... उनके अभिन्न मित्र और सहकर्मी डा. शर्मा की आवाज गूंजने लगी- “अजीत, मैं जानता हूँ तुमने फेमिली के साथ कोई प्रोग्राम अवश्य बनाया होगा लेकिन फार गाड शेक... उसे केंसल करना होगा...तुम कहो तो मैं नीला से माफी मांग लेता हूँ... यार आज हमें वृद्धाश्रम जाना है... वहाँ हेल्थ चेक अप केम्प है... डायरेक्टर ने प्रामिस किया है अगले हफ्ते सटरडे और संडे पूरा हमारा होगा... मैं आधे घंटे में आ रहा हूँ.... गेट रेडी बड़ी...” नन्हा अतीत खिलखिला उठा... आखिर उसे तीन घंटे एक चेयर में बैठने से मुक्ति जो मिल रही थी. डा. अजीत ने देखा कि अतीत की खिलखिलाहट नीला के चेहरे पर उभर आये असंतोष के भाव के ऊपर मुस्कराहट बन कर तैर गयी... बोली – आप तैयार हो जाईये... मैं काफी लाती हूँ...
घंटे भर बाद उनकी गाड़ी शारदा वृद्धाश्रम के गेट में प्रविष्ट हुई. डा. शर्मा और डा. अजीत ने महसूस किया कि वातावरण में कुछ बोझिलता है. वे गाड़ी से उतर आये... तत्काल ही एक अधेड व्यक्ति उनके पास आया- आईये डा. साहब, मैं त्रिपाठी हूँ यहाँ का मेनेजर... मेरी ही बात हुई थी हास्पिटल में... दोनों त्रिपाठी जी के साथ उनके छोटे से साफ़ सुथरे आफिस में आ गये. “हमारी टीम पीछे आ रही है” डा. शर्मा ने बताया, लेकिन यहाँ....” त्रिपाठी जी ने शायद उनका मनोभाव पढ़ लिया, बोले- “अच्छी खबर नहीं है, आज सुबह यहाँ की एक सदस्य रमादेवी जी का इंतकाल हो गया है, इसीलिए यहाँ का माहौल दुखी है. हमने रमादेवी जी के लड़के को खबर कर दी है, वे आते ही होंगे. फिर धीरे से झुक कर बोले- “आज यहाँ के सदस्य कुछ असहज हैं, आप को उचित लगे तो चेक अप केम्प के लिए अगली तारीख निर्धारित कर लें.” डा. शर्मा सहजता से बोल उठे- “आप सही कहते हैं, आप हास्पिटल में सूचना दे दीजियेगा...”
तभी वृद्धाश्रम के प्रांगण में एक बड़ी सी गाड़ी आकार रुकी. “रमादेवी जी का बेटा आ गया शायद”, कह कर त्रिपाठी जी बाहर निकल गये. डा. शर्मा और डा. अजीत ने देखा कि गाड़ी में से शक्ल सूरत से ही रईस सा दिखता एक युवा दम्पती उतरा. युवक तो लपककर माँ... कहते हुए रमादेवी जी के पार्थिव शरीर पर लगभग गिर पड़ा... दो क्षण वहाँ बैठकर उठा और सुबकते हुए त्रिपाठी जी के पास आया- “त्रिपाठी जी, माँ की तबियत बिगड़ी तो मुझे खबर किया होता... हम उन्हें किसी बड़े हास्पिटल में ले जाते... शायद वो आज हमारे बीच होतीं...” फिर रुमाल से अपनी आँखे पोंछते हुए कुर्ते की जेब से १००-१०० रुपयों की एक गड्डी निकाल कर त्रिपाठी जी की हाथों में रख दिया- “त्रिपाठी जी, अन्त्येष्टी में किसी प्रकार की कमी न करियेगा... मुझे बहुत जरूरी मीटिंग के लिए यूके जाना है अन्यथा रुक कर स्वयं उनकी अन्त्येष्टी करता....” और वह बाहर निकल गया....
डा. अजीत ने महसूस किया कि उसके भीतर कुछ धधक रहा है... जी में आया कि रमादेवी के ‘सुपुत्र’ का गिरेबान पकड़ कर भीतर फूटने वाले लावों को उसके ऊपर उड़ेल दे- “पाखंडी, अपनी माँ को यहाँ छोड़ कर जाते हुए तेरे दिल में सिहरन नहीं हुयी... अभी यहाँ घड़ियाल बन कर आँखें भिगो रहा है... नीच... अपने आप को बेटा कहने के पहले इंसान तो बन.... यूके न जाना होता तो तू खुद अन्त्येष्टी करता... एहसानफ...” अपनी भींची हुयी मुट्ठियों पर डा. शर्मा के हाथों का दबाव महसूस कर उसकी तंद्रा टूटी... भीतर फूटते लावों ने मुह को बंद पाकर अपना रूख उनकी आँखों की ओर कर लिया था... वे मुह फेरकर खिड़की के पास खड़े हो गये... बाहर देखा आश्रम की एक गैया व्याकुल स्वर में रंभाते हुए उस ग्वाले के पीछे दौड पडी जो उसके नन्हें बछड़े को शायद अलग बाँधने के लिए ले जा रहा था... गाय का आक्रामक रूप देख ग्वाले ने भयभीत सा होकर बछड़ा वहीं छोड़ दिया और दूर हट गया... बछड़ा लपक कर अपनी माँ के थन से दूध पीने लगा... गाय की सारी आक्रामकता दूर हो गयी थी... वह बछड़े को जीभ से चाट चाट कर अपनी ममता से भिगोने लगी... “चलें... अजीत...” डा. शर्मा का भीगा हुआ धीमा स्वर अजीत के कानों में पड़ा... उसका हाथ अनायास ही अपनी आँखों तक चला गया... पिघले हुए लावों की कुछ बूंदें हथेली पर उतर आयीं थीं... वह उनकी तपिश को हथेली में महसूस करता डा शर्मा के साथ लौट पड़ा...
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इस लेख में बहुत कुछ मिला है।
ReplyDeletedard hote hote bahut sukun mila....
ReplyDeleteआधुनिकता एवं भौतिकता सामाजिक मूल्यों को खा गयी. गहरा कटाक्ष है इस कहानी में उनके लिए जो रुपयों को दौड़ में माँ-बाप को भूल बैठे हैं. आभार
ReplyDeleteआजकल जो लोग अपने माता पिता को भूले बैठे है वह समझ ले की कल वह भी उसी जगह पहुचने वाले है . इतिहास किसी न किसी रूप में खुद को जरुर दोहराता है.
ReplyDeleteआज यही तो हो रहा है जिसे आपने कहानी के माध्यम से प्रस्तुत किया है।
ReplyDeleteबाहर देखा आश्रम की एक गैया व्याकुल स्वर में रंभाते हुए उस ग्वाले के पीछे दौड पडी जो उसके नन्हें बछड़े को शायद अलग बाँधने के लिए ले जा रहा था... गाय का आक्रामक रूप देख ग्वाले ने भयभीत सा होकर बछड़ा वहीं छोड़ दिया और दूर हट गया... बछड़ा लपक कर अपनी माँ के थन से दूध पीने लगा... गाय की सारी आक्रामकता दूर हो गयी थी ||
ReplyDeleteबहुत सुन्दर दृश्य ||
सुन्दर सन्देश ||
बधाई भाई ||
मर्मस्पर्शी कथा.सोचने पर मजबूर करती कि क्या ये ही है आज की आधुनिकता की देन.
ReplyDeletesarthak lekh...
ReplyDeleteआधुनिकता की दौड़ में अपनों को भुला देने वाले अज्ञानी मूढ़ की भरमार है आजकल । Very touching story.
ReplyDelete.
बहुत मार्मिक प्रस्तुति ... औलाद पैदा करके भी नहीं समझते कि माता पिता कितना त्याग करते हैं बच्चों के लिए .
ReplyDeleteBahut hi bhavpoorn prastuti ....aabhar
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी सार्थक और मार्मिक प्रस्तुति...
ReplyDeleteआज का कटु सत्य...बहुत मार्मिक प्रस्तुति..
ReplyDeleteजैसे ही आसमान पे देखा हिलाले-ईद.
ReplyDeleteदुनिया ख़ुशी से झूम उठी है,मनाले ईद.
ईद मुबारक
अंतर तक मन भर आया..कितने संवेदन हीन हो गए हैं हम ...स्नेह एवं कृतज्ञता युक्त संवेदनाओं एवं कर्तब्य पालन में
ReplyDeleteपशुओं से भी निम्न ....भाव पूर्ण सार्थक आलेख के लिए हार्दिक सादर अभिनन्दन !!!
.....समाज का ये रूप ...बहुत ही उदास कर गयी आपकी कहानी...समझ में नहीं आ रहा है क्या लिखा जाये ...
ReplyDeletemarmik prastuti.....
संवेदना एवं दर्द से से भरपूर मर्मस्पर्शी कहानी ! काश भौतिक मूल्यों की चकाचौंध से ग्रस्त आज के भटके हुए स्वार्थी युवा अपने मानवीय और नैतिक मूल्यों को भी पहचान पाते ! सार्थक संदेश देती इस सुन्दर कथा के लिये आभार !
ReplyDelete@ डा. अजीत ने महसूस किया कि उसके भीतर कुछ धधक रहा है...
ReplyDeleteहबीब साहब, रखवाला के ऊपर आपके विचार पढ़कर यहां आया। इस कथा को पढ़कर सही में भीतर कुछ धधक रहा है।
एक लघु कथा पढ़ी थी। उसका शीर्षक या लेखक का नाम नहीं है। पर कथा का सार यह है कि मां - बाप गांव में हैं। दोनों बेटे लंदन में। मां मर जाती है। बड़ा बेटा आता है। श्राद्ध में भाग लेने। छोटा किसी कारणवश नहीं आ पाता।
श्राद्ध के बाद बड़ा बेटा भी वापस चला जाता है। काम की मज़बूरी है। बाप गांव में अकेला है।
बेटा मोबाइल वहीं भूल जाता है। बाप की नज़र उस पर पड़ती है। वह उठाता है। तभी एक कॉल आता है। वह उठा कर फोन रिसिव करता है। कॉल लंदन से छोटे बेटे का है, जो अपने बड़े भाई को संबोधित कर रहा होता है, भाई तूने मुझे बचा लिया। इस अहसान को मैं ज़रूर चुकाऊंगा। मां में तो तू गया, पिता जी में मैं चला जाऊंगा इंडिया।