Thursday, August 4, 2011

स्वीकारोक्ति - 2

म्माननीय मित्रों को सादर नमस्कार.... आज एक पुरानी कविता प्रस्तुत है जिसकी रचना लगभग साल भर पहले तब हुई थी जब एक दिन समाचारों ने  अनायास ही अनेक चेहरों का  पाखंड अनावृत कर दिया  था... तब आश्चर्य, आक्रोश और ग्लानि घनीभूत होकर शब्दों में ढल गए थे.... स्वीकारोक्ति...

आईने तुझ तक आऊँ कैसे?
अपना रूप दिखाऊँ कैसे?
अंतरात्मा की आँखों से 
आँखें भला मिलाऊँ कैसे? 


आज दुह्शाशन बन कर फिरता,
जाने कितनी चीरें हरता,
मैं ढोंगी कामी और लम्पट 
आदर्शों की बातें करता 
दुष्कर्मों को चाहे ढँक लूं 
अंतर को समझाऊँ कैसे? 


जाने क्या इस नश्वर तन में,
जिसे बसाया सबने मन में,
अन्धकार का इक दरिया खुद 
भटक रहा प्रश्नों के वन में 
खुद ही राह न पाऊँ सबको 
कोई राह सुझाऊं कैसे? 


शब्द मेरे मुझ पर ही हँसते 
सच्चाई बन विषधर डसते
डोली सपनों की नयनों में 
उजड़े फिर फिर बसते बसते 
काँटों की झाडी मन मेरा 
गीत मधुर तब गाऊँ कैसे? 


झूठ पे सच की खाल चढ़ाकर 
मधुर शब्दों की जाल बनाकर 
भावनाओं के संग मैं खेलूं 
मानवता व्यापार बनाकर 
प्रथम नियम बाजारवाद का 
वेश असल दिखलाऊँ कैसे?

अंतरात्मा की आँखों से 
आँखें भला मिलाऊँ कैसे? 


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12 comments:

  1. @झूठ पे सच की खाल चढ़ाकर
    मधुर शब्दों की जाल बनाकर
    भावनाओं के संग मैं खेलूं
    मानवता व्यापार बनाकर
    प्रथम नियम बाजारवाद का
    वेश असल दिखलाऊँ कैसे?

    सच कहा है, शानदार अभिव्यक्ति कविता के माध्यम से
    आभार

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  2. काश ,आपकी यह पीडा हर व्यक्ति महसूस करता । सार्थक अभिव्यक्ति ।

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  3. झूठ पे सच की खाल चढ़ाकर
    मधुर शब्दों की जाल बनाकर
    भावनाओं के संग मैं खेलूं
    मानवता व्यापार बनाकर
    प्रथम नियम बाजारवाद का
    वेश असल दिखलाऊँ कैसे?... वर्तमान का सच

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  4. आजकल के समयों की बेहद मार्मिक और सटीक अभिव्यक्ति. आभार.
    सादर,
    डोरोथी.

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  5. अंतरात्मा की आँखों से
    आँखें भला मिलाऊँ कैसे?


    हर मन की पीड़ा आपकी
    लेखनी में समा गयी...भाई...आभार..

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  6. सच को उजागर करती अच्छी रचना

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  7. geet ki tarah gaa kar ye bada kamaal ka lagta hai....bahuta chhe


    http://teri-galatfahmi.blogspot.com/

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  8. झूठ पे सच की खाल चढ़ाकर
    मधुर शब्दों की जाल बनाकर
    भावनाओं के संग मैं खेलूं
    मानवता व्यापार बनाकर
    प्रथम नियम बाजारवाद का
    वेश असल दिखलाऊँ कैसे?
    -बहुत सटीक अभिव्यक्ति..

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  9. आईने तुझ तक आऊँ कैसे?
    अपना रूप दिखाऊँ कैसे?

    इक आईना ही तो है जो झूठ नहीं बोलने देता .....

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  10. प्रभावित कर रही है रचना.. बढ़िया .

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मेरी हौसला-अफजाई करने का बहुत शुक्रिया.... आपकी बेशकीमती रायें मुझे मेरी कमजोरियों से वाकिफ करा, मुझे उनसे दूर ले जाने का जरिया बने, इन्हीं तमन्नाओं के साथ..... आपका हबीब.

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