Friday, February 4, 2011

इश्तहार


जाने कहाँ चली गयी है... मेरी कविता !
बाग़ से हो आया मैं,
फूलों से पूछा, हर इक कलियों,
उन्हें गा कर छेड़ते हर भंवरे से पूछा,
उनकी पत्तियों, काँटों से पूछा,
मनमोहक तितलियों से पूछा-
क्या तुमने देखा है मेरी कविता को?
*
अमराई भी गया था मैं,
आम के पेड़ से पूछा
उसकी बौरों से, नवागत फलों से पूछा,
उस पर गाने वाली कोयल से और
उस पर डेरा डाले विभिन्न पक्षियों से पूछा-
क्या तुमने देखा है मेरी कविता को ??
*
भाठा में चरने वाली
गायों, उसके बछड़ों से पूछा,
चरवाहे की बंशी, उससे निकलते हर धुन से पूछा,
नदियों से, सागर से उसकी लहरों से पूछा
उनमें तैरती नावों, साथ बहती हवाओं से पूछा-
क्या तुमने देखा है मेरी कविता को ???
*
कोई कुछ ना बोला,
सब ने ओढ़ रखी थी एक चुप्पी...
सब, जो मेरी कविता के अभिन्न मित्र थे,
साथ रहते, साथ हँसते-रोते, जागते- सोते थे...
*
हारकर लौटते हुए
वह मिली मुझे, टूटी फूटी झोपडी के सामने
चीथड़े में लिपटी नन्हीं बच्ची के साथ खेलती....
कैसी खिलखिला रही थी मेरी कविता,
बच्ची की ही तरह, कितनी निश्चिन्त, कितनी प्यारी,
कितनी सुन्दर लग रही थी मेरी कविता !!!
*
मुझे देखते ही संजीदा हो गयी, बोली-
"नहीं जाना मुझे तुम्हारी खोखली, दिखावटी दुनिया में,
जहां ज़िंदगी की कोइ कीमत नहीं...
दीपक जलते हैं, मगर अन्धेरा फैलाते है...
जहां प्यार है, मगर कांसे पर चढ़ी हुई पालिश की तरह...
मानो नफ़रत के बर्तन पर कलई चढ़ा दी गयी हो !!
यहीं रहूंगी मैं,
भले ही मुफलिसी है, मगर...
यहाँ ज़िंदगी की कीमत तो है,
चाँद की दुधिया रोशनी की तरह प्यार है पीने के लिए...
मजबूरियों के बावजूद , नफ़रत के कीटाणुओं से मुक्त
स्वच्छ हवा है जीने के लिए...
नहीं, यहीं रहूंगी मैं.... !"
*
मैं जिद न कर सका...
बस सुबह शाम जाकर
देख आता था अपनी कविता को....
मगर आज देखा-
उस जगह ईंट, गिट्टी, रेत, सीमेंट, लोहे के ढेर लगे हैं....
बड़ी बड़ी गाड़ियां खडी हैं.... बड़ी बड़ी मशीनें चल रही है....
ना झोपडी है वहाँ, ना मेरी कविता....
*
जाने कहाँ चली गयी मेरी कविता...
सोचता हूँ -
जहां मुठ्ठी भर प्यार होगा,
साँसों के लिए स्वच्छ हवा होगी,
ज़िंदगी की सच्ची कीमत होगी,
वहीं होगी मेरी कविता....!!!
क्या आपकी नज़र में है ऐसी जगह...????
*
***********************

3 comments:

  1. बहुत सुन्दर बड़े भैया,
    लेकिन जहाँ मुठ्ठी भर प्यार हो,
    साँसों के लिए स्वच्छ हवा हो,
    जिन्दगी की सच्ची कीमत हो,
    वो जगह कहाँ मिलेगी ?

    ReplyDelete
  2. कविता को मैं भी धुंध रहा हूँ...
    न जाने कहाँ गायब हो गयी..
    निर्झर सूख गया है..
    पहले सहज ही आ जाती थी.
    अब मनुहार से भी नहीं आती..

    ReplyDelete

मेरी हौसला-अफजाई करने का बहुत शुक्रिया.... आपकी बेशकीमती रायें मुझे मेरी कमजोरियों से वाकिफ करा, मुझे उनसे दूर ले जाने का जरिया बने, इन्हीं तमन्नाओं के साथ..... आपका हबीब.

"अपनी भाषा, हिंदी भाषा" (हिंदी में लिखें)

एक नज़र इधर भी...