आज दुनिया भर में महान संत कबीर जी का प्राकट्य दिवस मनाया जा रहा है.... महान संत का पुन्य स्मरण कर आप सभी सम्मानीय स्नेहीजनों को कबीर जयंती की सादर बधाई देते हुए कुछ (दो भिन्न भाव रंगों के) दोहे आप सभी सुधीजनों की सभा में सादर....
मैं तन्हा रथ हाँकता, पाँच बली हैं अश्व।
सभी पृथक दिस खींचते, शक्तिहीन मैं ह्रस्व॥
लक्ष लक्ष ले लालसा, लाख लड़ूँ ललकार।
जीवन में धन जीतता, जीवन धन को हार॥
शीश बड़ा है भक्ति से, शीश चढ़ा अभिमान।
मैं मूरख मन पालता, अन्धकार, अज्ञान॥
हर्षित हो कर नाचता, लिए हाथ अंगार।
मन माया में मत्त है, सत्य लगे संसार॥
मैं ढूँढूँ तुझको भला, संभव कब, हे नाथ।
तू ही मुझको खोज ले, रख ले अपने साथ॥
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अहंकार पाखण्ड पर, किए कबीर प्रहार।
अहंकार पाखण्ड ही, फिर पाये विस्तार॥
ढोंग धतूरा कर रहे, आज बिछाये जाल।
संतों की पदवी बनी, जी का ही जंजाल॥
ठग की माया है बड़ी, फंस जाते नादान।
अपनी माया भूल कर, दंग हुये भगवान॥
कहीं समागम देख लो, लगा कहीं दरबार।
पैसा ही भगती बनी, हरी भगत लाचार॥
सौ दो सौ की बात क्या, चढ़ते हैं अब लाख।
शानो शौकत देख कर, खुली की खुली आँख॥
जीवन भर करते रहे, पंथ विरोध कबीर।
सब पंथों के आज हैं, अपने जुदा फकीर॥
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संत कबीर जयंती की सादर बधाईयाँ
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श्री कबीर जयंती के अवसर पर कबीर के दोहे प्रस्तुत करने के लिए आपका आभार.... कबीर कि रचनाएँ युगों युगों तक शास्वत बनी रहेंगी उनके दोहों में सम्पूर्ण दुनिया का जीवन दर्शन समाया है उनके काव्य में सच्चाई है उस युग के प्रसिद्द व्यंगकार थे कबीर| आपके द्वारा प्रस्तुत रचना हमारे लिए नयी थी पढने में आनंद की अनुभूति हुई ..
ReplyDeleteधन्यवाद ....हबीब जी
वाह... उम्दा, बेहतरीन अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteकहीं समागम देख लो, लगा कहीं दरबार।
ReplyDeleteपैसा ही भगती बनी, हरी भगत लाचार॥
अर्थपूर्ण पंक्तियाँ.....
वाह ...बहुत सुन्दर दोहे .....
ReplyDeleteकबीर के ज्ञान की गहनता और प्रस्तुति की निर्भीकता, दोनों ही विशिष्ट हैं।
ReplyDeleteसुन्दर दोहे के लिए आभार...कबीर जयंती याद दिलाने के लिए भी..
ReplyDeleteअहंकार पाखण्ड पर, किए कबीर प्रहार।
ReplyDeleteअहंकार पाखण्ड ही, फिर पाये विस्तार॥
एक एक दोहा सार से पूर्ण .... कबीर जयंती पर सुन्दर उपहार
बहुत बढ़िया दोहे.....
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति...
आपको भी बधाई.
सादर.
वाह ... बहुत ही बढिया।
ReplyDeleteजीवन-धन को हार,मिले न जीवन में धन।
ReplyDeleteअन्धकार-अज्ञान हरो प्रभु हर्षित हो मन॥
मैं ढूँढूँ तुझको भला, संभव कब, हे नाथ।
ReplyDeleteतू ही मुझको खोज ले, रख ले अपने साथ॥
....बहुत खूब! सभी दोहे बहुत सुन्दर और सार्थक...
मन मोहक सुंदर सार्थक दोहे ,,,,,
ReplyDeleteMY RESENT POST,,,,,काव्यान्जलि ...: स्वागत गीत,,,,,
सुंदर सार्थक दोहे ,,,,, बहुत ही बढिया।
ReplyDeleteआपकी व्यावहारिक सूझ-बूझ की दाद देनी पड़ेगी, यह रचना आम लोगों के साथ-साथ खास लोगों में भी जगह बना लेगी।
ReplyDeleteकबीर दास भक्त संत ही नहीं समाज सुधारक भी थे। उन्होंने अंधविश्वास, कुरीतियों और रूढिवादिता का विरोध किया। विषमताग्रस्त समाज में जागृति पैदा कर लोगों को भक्ति का नया मार्ग दिखाना इनका उद्देश्य था। जिसमें वे काफ़ी हद तक सफल भी हुए। उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रयास किए। उन्होंने राम-रहीम के एकत्व पर ज़ोर दिया। उन्होंने दोनों दर्मों की कट्टरता पर समान रूप से फटकार लगाई।
bahut prerak dohe. aabhar.
ReplyDeletexसाधु-साधु
ReplyDeleteअर्थपूर्ण दोहे ...हर एक दूसरे से बेहतर ...बहुत सुन्दर ...बधाई !
ReplyDeleteबहुत खूब सर!
ReplyDeleteसादर
आपका भी मेरे ब्लॉग मेरा मन आने के लिए बहुत आभार
ReplyDeleteआपकी बहुत बेहतरीन व प्रभावपूर्ण रचना...
आपका मैं फालोवर बन गया हूँ आप भी बने मुझे खुशी होगी,......
मेरा एक ब्लॉग है
http://dineshpareek19.blogspot.in/
बड़े दिन बाद फिर से दोहे पढ़ रहा हूँ
ReplyDeleteशीश बड़ा है भक्ति से, शीश चढ़ा अभिमान।
मैं मूरख मन पालता, अन्धकार, अज्ञान॥
.....
कहीं समागम देख लो, लगा कहीं दरबार।
पैसा ही भगती बनी, हरी भगत लाचार॥
..और आपके लेखन के बारे में तो अनेक बार कह चुका हूँ पुनरावृत्ति में भी तारीफ ही निकलेगी !
बहुत बेहतरीन दोहे...आभार !
ReplyDeleteसभी दोहे एक से बढ़कर एक... सच की हामी भरते दोहे
ReplyDeleteबेहतरीन दोहे.
ReplyDeleteआप हो बताएं किस को एक से बढकर एक न कहूँ ?
ReplyDeleteसबी दोहे बहुत सुन्दर हैं।
ReplyDeleteआपको भी.....बहुत ही सुन्दर लगे दोहे।
ReplyDeleteबहुत सुंदर दोहे । मेरे नए पोस्ट पर आपका बेसब्री से इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
ReplyDeleteदोहे लिखना आसान नहीं और आप ने तो इतने सुन्दर दोहे लिखे हैं .
ReplyDeleteकबीर जयंती को याद रखा यह भी बड़ी बात है.
कबीर के शिष्य कमजोर पड़ गये लगता है। अंहकार अंधविश्वसा तो अब तक खत्म हो जाना था।
ReplyDelete..सशक्त दोहे।
लक्ष लक्ष ले लालसा, लाख लड़ूँ ललकार।
ReplyDeleteजीवन में धन जीतता, जीवन धन को हार ...
वाह .. अति सुन्दर कितनी सच्चाई है इस दोहे में .. जीवन का सार है ... जीवन धन कों हार के ही धन प्राप्त होता है ...