सभी सम्माननीय, स्नेही मित्रों को सादर नमस्कार... परम आदरणीय ब्लोगर, बड़े भईया महेंद्र मिश्र ने अपने ब्लॉग 'समय चक्र' के ३४७ वीं पोस्ट में सुश्री उर्मिला मेहता जी के व्यंग्य आलेख और उसमें दी गयी कविता रचने हेतु आवश्यक रोचक रेसिपी का सोदाहरण उल्लेख किया है। उस रोचक रेसिपी पर विचार और प्रयोग करते करते कुछ शेर कहना प्रारंभ किया और कहते कहते हास्य से दूर ले जाती यह सामयिक और वैचारिक ग़ज़ल बन पडी। नादान हबीब का यह प्रयोगधर्म महफिले दानां में पेशे खिदमत है .... "इक रोटी के अनगिन टुकड़े"
इक रोटी के अनगिन टुकड़े।
हर टुकड़ों के अपने दुखड़े।
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जाने कितना गहरा धंसा है,
भ्रष्टाचार के पाँव न उखड़े।
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ख़्वाबों को ओढ़े बैठा वह,
जैसे चिंदी चिंदी कपडे।
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स्वक्छ प्रशासन का वादा कर,
करते जाते हैं वे लफड़े।
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सच्चाई का वक़्त बुरा है,
झूठ के आगे नाक वो रगड़े।
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सीधा सादा जीवन चांहू,
पर आते पचड़े पर पचड़े।
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चलो बहायें दरिया -ए-उल्फत,
छोड़ 'हबीब' आपस के झगडे।
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वाह भैय्या बहुत ख़ूबसूरत अंदाज लगा आपका .. बहुत बढ़िया गजल कहीं हैं वाह ... शुक्रिया ..
ReplyDeleteहबीब भाई जिन्दाबाद!!!! जिन्दाबाद !!!!!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया गज़ल ...भ्रष्टाचार पर अच्छा व्यंग
ReplyDelete... behatreen !!!
ReplyDeleteBahut Achchhi gazal hai bhai!
ReplyDelete"Jaane kitna gahra dhansa hai"- lay/sur ki drishti se isme thoda sudhaar kar sakte hain, "gahra" ki jagah koi aur shabd rakhein - 3 maatraon ka!
ReplyDeleteवाह....
ReplyDeleteक्या बात है..
मेरी शुभकामनायें स्वीकार करें.....
बहुत सुंदर व्यंगात्मक ग़ज़ल भ्रष्टाचार के खिलाफ ....
ReplyDeleteइक रोटी के अनगिन टुकड़े...जीवन के सच को उजागर करने वाली ग़ज़ल है। बधाई!
ReplyDeleteआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 05-04-2012 को यहाँ भी है
ReplyDelete.... आज की नयी पुरानी हलचल में ......सुनो मत छेड़ो सुख तान .
बहुत खूब सर!
ReplyDeleteसादर
बहुत सटीक बात कही है आपने ...
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