Tuesday, November 16, 2010

कल/आज

(१)
कल
तेरी यादों के तार
जोड़ - जोड़ कर
बुना था एक जाल, और
टांग दिया उसे आसमान में,
कि फसेंगी उसमें
खुशियाँ... ढेर सारी....

आज
बड़ी उम्मीद से
उतारा जब जाल,
फंसा पाया उसमें एक -
भयावह सन्नाटा.... विद्रूप सा...

किंकर्तव्यविमूढ़ अब
देख रहा हूँ सन्नाटे को,
और सन्नाटा मुझको......


(2)
कल
एक पत्थर - मासूम सा...
दिल को अच्छा लगा...

मैंने
कल्पना की औजारें लीं,
उसे तराशा,
और बो दिया
ख़्वाबों के समंदर में,
कमल की तरह...
कि खिलेगा वह
मकायेगा फजां ज़िंदगी की....

मगर!
मेरे ख़्वाबों का
सारा समंदर पीकर भी
वह ना खिला....

आज
ख्वाब नहीं हैं - मेरे पास,
बस,
ज़िंदगी है.... सूखी सी.... हक़ीक़तों भरी....

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14 comments:

  1. दोनों क्षणिकाएं लाजवाब ..

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  2. गहन अर्थ लिये बहुत सुंदर क्षणिकायें....!!
    शुभकामनायेन .

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  3. बहुत ही बेहतरीन क्षणिकाएं
    :-)

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  4. आज
    ख्वाब नहीं हैं - मेरे पास,
    बस,
    ज़िंदगी है.... सूखी सी.... हक़ीक़तों भरी....
    गहन भाव लिए ... बेहतरीन प्रस्‍तुति।

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  5. क्षणिकाएं लाजवाब ..

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  6. आज
    ख्वाब नहीं हैं - मेरे पास,
    बस,
    ज़िंदगी है.... सूखी सी.... हक़ीक़तों भरी....

    ....बहुत सुन्दर...दोनों क्षणिकाएं लाज़वाब ......

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  7. आज
    ख्वाब नहीं हैं - मेरे पास,
    बस,
    ज़िंदगी है.... सूखी सी.... हक़ीक़तों भरी....
    वाह !

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  8. बहुत ही बढ़िया सर!

    सादर

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मेरी हौसला-अफजाई करने का बहुत शुक्रिया.... आपकी बेशकीमती रायें मुझे मेरी कमजोरियों से वाकिफ करा, मुझे उनसे दूर ले जाने का जरिया बने, इन्हीं तमन्नाओं के साथ..... आपका हबीब.

"अपनी भाषा, हिंदी भाषा" (हिंदी में लिखें)

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