अपने समस्त स्नेही स्वजनों को सादर नमस्कार.... । सम्माननीय मित्रों, टिप्पणियों के रूप में आपका स्नेह और मार्गदर्शन ज़ेहन में नई ऊर्जा और विचारों में ताजगी का संचार करता है... । विश्वास है कि ऊर्जा और ताजगी का संचार करने वाले ये स्नेहिल कारक अपने प्रभामंडल से इस नाचीज़ की राहें रौशन करते रहेंगे.... ।
मित्रों, रोजमर्रा के जीवन में अनेक घटनाएं नज़रों में से गुजरती हैं, किन्तु कुछ घटनाएं अपनी शिद्दत, अपनी तीक्ष्णता के साथ अंतर में कहीं पेबस्त हो जाती हैं, रोपित हो जाती हैं और विचारों की नमी पाकर अंकुरित हो जाती हैं। यह अंकुरण कभी सुन्दर पुष्पों की ओर अग्रसर होता है, तो कभी कंटीली झाड़ियाँ भी बन जाती हैं... । एक सौजन्य मिलन और गोष्ठी के कार्यक्रम हेतु बिलासपुर जाते हुए रेलवे स्टेशन पर कल ऐसी ही एक घटना का गवाह बना। ऐसी घटना जिसके समाधान पर काफी कुछ लिखा जाता है, योजनायें बनायी जाती हैं, बड़ी बड़ी गोष्ठियां होती हैं, शाशकीय योजनाओं पर इफरात धन खर्च किये जाते हैं, किन्तु सफलता .....??? उस घटना पर अपनी प्रतिक्रिया को १४ नवम्बर बाल दिवस के अवसर पर आप गुणीजनों के साथ बांटने का अभिलाषी हूँ। एक आत्म व्यंग्य, जो अपने आप में सार्भौमिक व्यंग्य है....
-: समाधान :-
रेलवे स्टेशन में
प्लेटफार्म की चेयर पर,
ट्रेन का इंतज़ार करते
फ़िल्मी मैगजीन पर नज़रें गडाए,
वक़्त गुज़ार रहा था,
कि घुटने के पास
झूल गया एक चिथड़ा - मैला सा।
देखा -
दस बरस का एक लड़का
अपने बनियान की तरह ही
मैला - कुचैला..., शायद 'चिथड़ा' भी...!
खड़ा था अपने नन्हें हाथों को फैलाए...
शायद उसकी हालत पर द्रवित हो,
शायद औपचारिकतावश
बहुत सी बातें कह डाली मैनें,
कुछ प्यार की, कुछ समझाईश,
कुछ सहानुभूति की, कुछ प्रश्न भी...!!
किन्तु जवाब में
बस देखता रहा वह - अपलक...
समझ ना सका
क्या था, उसकी आँखों में -
उदासी...? मजबूरी...?? व्यथा...??? प्रश्न...????
हारकर/शायद बेचैन होकर,
एक 'टुकडा' सरका दिया मैंने -
अपनी 'दया' का -
खुली हुयी उसकी हथेली पर...!!
अब यूँही पडा है,
मेरी गोद में वह मैगजीन,
वक़्त गुजारने के लिए -
अब नहीं है
उसकी आवश्यकता...!!!
अब तो तमाम वक़्त,
मैं सोचूंगा/शायद कोसुंगा भी,
समाज को...! सरकार को...!! व्यवस्था को...!!!
अकर्मण्यता हेतु/ या हो सकता है,
कोइ लेख, कोइ कविता ही लिख डालूँ,
उस 'बालक' और उसकी 'आँखों' के नाम...!!!!
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किसकी बात करें-आपकी प्रस्तुति की या आपकी रचनाओं की। सब ही तो आनन्ददायक हैं।
ReplyDeleteहबीब साब,
ReplyDeleteआदाब!
चोट करने में सक्षम है आपकी कविता....
लेकिन जो बात ज़्यादा अहम है वो ये के क्या इस समस्या का कोई हल है?
अनुभव आपका पढ़ रहा था और विज़ुअलाईज़ खुद को कर रहा था, लुधिआना रेलवे स्टेशन पर.
आशीष
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पहला ख़ुमार और फिर उतरा बुखार!!!
सामाजिक व्यवस्था पर प्रहार करती बढ़िया रचना ... रचना भाव बेहद उम्दा हैं ... आभार
ReplyDeleteरचना भाव बेहद उम्दा हैं ... आभार
ReplyDelete... bhaavpoorn rachanaa ... behatreen abhivyakti !!!
ReplyDeleteक्या देखा है तुम ने नर को नर के आगे हाथ फैलाये
ReplyDeleteक्या देखे है तुम ने उनकी आँखों में खारे फौवारे
देखे है फिर भी कहते हैं हम नहीं हो विप्लविकारी
तब तो हम सब हिजड़े है या हैं महा भयंकर अत्याचारी
बहुत सुंदर भाव पूर्ण रचना जो हमारे देश की इस समस्या पर कुठाराघात कर रही है लकिन इस समस्या का निदान क्या है ????
अगवानी हर परिवर्तन की भेट चड़ी बदनामी की
हमने जय प्रकाश के आंसू की भी तो नीलामी की
परिवर्तन की पतवारो से केवल एक निवदेन था
भूखी मानवता को रोटी देने का आवेदन था
अब भी रोज कहर के बादल फटते है झोपड़ियों पर
कोई संसद बहस नहीं करती भूखी अंतड़ियों पर
अब भी महलों के पहरे है पगडण्डी की सांसो पर
शोक सभाएं कहाँ हुई है मजदूरो की लाशो पर
निर्धनता का खेल देखिये कला हांड़ी में जा कर
बेच रही है माँ बेटी को भूख प्यास से अकुला कर
यहाँ बचपना और जवानी गम से रोज बुढ़ाती है
माँ बेटों की लाशो पर आंचल का कफ़न उढ़ाती है
हर चौराहे से आती है आवाजे संत्रासो की
पूरा देश नज़र आता है मंडी ताजा लाशो की
सिंघासान को चला रहे है नैतिकता के नारों से
मदिरा की बदबू आती है संसद की दीवारों से
हम वो कलम नहीं है जो बिक जाती है दरबारों में
हम शब्दों की दीप शिखा है अंधियारे चौबारे में
हम वाणी के राज दूत है सच पर मरने वालें है
डाकू को डाकू कहने की हिम्मत करने वाले हैं
जब तक बंद तिजोरी में मेहनतकस की आज़ादी है
तब तक हम सिंघ्हासान को अपराधी बतलायेंगे
बागी है हम इंक़लाब के गीत सुनाते जायेगें
हर हर महादेव
प्रणाम,
ReplyDeleteआपकी रचना को पढ़ते वक़्त उस बालक की कल्पना करती हुई तस्वीर नजर के सामने आने लगती है और साथ में हजारों सवाल मन में उठते है पर लाख सोचने पर भी न जाने क्यों कोई सार्थक "समाधान" नजर नहीं आता...
आपकी इस रचना पर टिपण्णी करने की गुस्ताखी मै नहीं कर सकता अतः केवल सार्थक लेखन की अनवरतता के लिए शुभकामनायें स्वीकार करें |
"भारतीय"