प्रभु...!
मैं पुनः छला गया....
मैंने देखा था - शैतान,
सांप का रूप धर आया था
सो, तमाम वक़्त
बचाता रहा स्वयं को
विषधरों से,
फिर भी मैं
धोखा खा ही गया.....!!
शैतान इस बार सांप नहीं
इंसान के भेष में आ गया
बहका कर
"स्वार्थ के वृक्ष का
प्रतिबंधित फल" खिला गया....
*
भूल गया फिर
तेरी शिक्षा, तेरा उपदेश
याद रहा केवल आवेश
मैं जला, जलाता गया,
आदर्शों का लहू
बहाता गया....
बहाता गया...
अब, जब नशा
उतरने को है - स्वार्थ का,
डर रहा हूँ,
अदन से निष्काषित हो कर
जमीन पर आया था,
कहाँ जाउंगा
अगर यहाँ से भी निकाला गया...!!!!
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कलम के बेटे को प्रणाम
ReplyDeleteआपके द्वारा लिखी कवितायेँ जीवन में नई उमंग और प्रेरणा देती हैं
इश्वर आपकी लेखन शैली को और भी उज्जवलित करे .........
हर हर महादेव
... प्रभावशाली रचना, बधाई!
ReplyDeleteवाह भैया क्या बात है............
ReplyDeleteइस पर कुछ भी कह पाना मुझ अकिंचन के लिए असंभव है, अतः मै आपको ढेर सारी बधाई इस बेहतरीन पोस्ट और नवरात्री के पावन पर्व के लिए प्रेषित कर रहा हूँ !!!
बहुत ही प्रभावी रचना .....
ReplyDeleteसांप के काटे से मनुष्य इस पार या उस पार हो जाता है पर मनुष्य का कटा ताउम्र उसे सुलगता रहता है ...जो और भी हानिकारक है .....
hirdayisparshi
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