Thursday, August 19, 2010

"सर्वजन दुखाय, सर्वजन लुटाय"

सुधि मित्रों, आदाब। आज मैं अपनी यात्रा के दौरान प्राप्त अलग किस्म के अनुभव को आप लोगों के साथ बांटना चाहता हूँ। कल कि बात है। शाम का वक़्त, मैं अपनी मोटरसायकल पर बिलासपुर छ ग से रायपुर आने के लिए निकला। (मुझे मोटरसायकल में सफ़र करना बेहद भाता है, और बारिश में मोटरसायकल ड्राइविंग मेरी कमजोरी। इसीलिए अपने मोटरसायकल की साईडबेग में रेनकोट और केमरा तथा मोबाइल फोन के लिए वाटर प्रूफ बेग जरूर रखता हूँ।) पांच के करीब का वक़्त होगा जब मैं मनियारी नदी के पुल पर पहुंचा। अस्ताचल पर जाते सूरज के साथ बादलों के एक झुण्ड के स्नेहमिलन से वातावरण बड़ा ही सुहाना बन गया था। नदी के दिलकश दृश्यों और मद्धम गति से बहती ठंडी हवाओं ने मुझे वहां ठहरने के लिए मजबूर कर दिया। पुल के ऊपर से नदी के नयनाभिराम दृश्यों को क़ैद करने की नीयत से मैंने अपना हैंडीकेम निकाला, परन्तु यह क्या? कैमरे की बैटरी 'लो' इंडिकेट कर बंद हो गयी। खैर... कैमरे को यथास्थान डालकर मैं लगभग नहीं के बराबर आवाजाही वाले पुल की रेलिंग पर कुहनी टिकाकर ठंडी हवा के झोंकों को चहरे और बालों पर महसूस करने लगा। सचमुच, प्रकृति जब अपने रंग में होती है तो मैं नहीं समझता कि उससे ज्यादा रोमांटिक कुछ हो सकता है।
कुछ समय बिताकर चलने कि तैयारी करते हुए देखा कि पुल के सिरे से एक व्यक्ति मुझे रुकने का संकेत कर रहा है। पास आने पर मैंने देखा कि वे नेवी स्टाईल के बेदाग़ सफ़ेद पेंट कमीज पहने हुए थे। उम्र कम से कम ८० वर्ष की या कुछ ज्यादा ही रही हो। इतने उम्रदराज होने के बावजूद वे एकदम तन कर सीधे चल रहे थे। उनके सन की तरह सफ़ेद बाल और आत्मविश्वास भरे चेहरे को ढंकते हुए उसकी सफ़ेद दाढ़ी उनके व्यक्तित्व में एक अजीब सी कशीश पैदा कर रही थी। मैं उस गोरे चिट्टे सर्व श्वेत मानव मूर्ति को निहार ही रहा था कि वे चहरे पर मधुर मुस्कराहट लिए बोले - "क्या आप मुझे आगे बस स्टाप तक छोड़ देंगे?" जाने उनके व्यक्तित्व और मुस्कराहट में कैसा अपनापन था, मैंने यंत्रवत उन्हें निर्वचन स्वीकृती दे दी।
अभी हम पुल से नीचे आये थे की मेरी नजर सड़क किनारे जमीन पर पड़े कागज के तिरंगे पर पड़ी। मुझे अपना पिछला पोस्ट याद आ गया। मैंने मोटरसायकल रोककर उनसे कहा - "सर! (यही संबोधन उनके लिए मुझे उचित जान पड़ा) दो मिनट की तकलीफ दूंगा।" और मैं वह तिरंगा उठा लाया। तिरंगे को मोटरसायकल के वाईजर में जहाँ छोटी सी जगह होती है, डालते हुए मैंने देखा कि वह सर्व श्वेत मानव मूर्ति मुस्कुरा रही है। जाने कैसी मुस्कराहट थी वह, एक पल को लगा जैसे उसमें गहरा व्यंग्य है फिर अगले ही पल उसमें संतुष्टी की झलक भी दिखाई दे गई। हम चल पड़े। सरगाव का बस स्टॉप आ रहा था। मैं उनके सम्बन्ध में जानने को उत्सुक था अतः प्रस्ताव दिया कि मुझे तो रायपुर तक जाना है, आप चाहें तो साथ चल सकते हैं। मैंने महसूस किया कि उन्होंने आकाश में घुमड़ते बादलों को देखा और मेरे कंधे पर हाथ रखकर धीमे से सहमती दे दी।
आगे चलकर मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि उनका नाम रघुवीर सिंह है, और वे आजाद हिंद फौज के सिपाही रह चुके हैं। नेता जी से मिले हैं। उनके साथ यात्रा भी कर चुके हैं। मुझे बड़ी संतुष्टी का एहसास हुआ कि प्रथम भेंट में ही उनके लिए जो सम्मान मेरे मन में उठा था वह अकारण नहीं था। सच ही कहा गया है कि, कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनसे पहली बार मिलते हुए भी लगता है कि चिरपरिचित हैं। मैंने सम्मानपूर्वक कहा- "सर, आप लोगों के प्रयासों से हमारा मुल्क आज़ाद हो पाया है। कैसा महसूस करते हैं आप? उनका उत्तर सुनकर मैं हकबका सा गया। उन्होंने सीधे और सपाट लफ़्ज़ों में कहा -"अंग्रेजों का राज ही बेहतर था।"
मैंने आश्चर्य पूर्वक पूछा - "सर! कैसी बात कह रहे हैं आप? जिन गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने के लिए भारत माँ के कितने सपूत शहीद हो गए, आप स्वयं भी उन कुर्बानियों के गवाह होंगे, और आप ही आजादी से बेहतर 'गुलामी के राज' को बता रहे हैं? आपको नहीं लगता कि आप कुछ ज्यादा ही तीखी और तल्ख़ भाषा का प्रयोग कर रहे हैं?"
मैंने महसूस किया वे एकदम तन कर बैठ गए। उनके शब्द मैं भूल नहीं सकता। इस पोस्ट को लिखते समय भी जैसे उनके शब्द अक्षरशः मेरे कानों में गूंज रहे हैं। सधे शब्दों में कहने लगे- "हाँ मैं तल्ख़ भाषा का प्रयोग कर रहा हूँ। लेकिन मेरे दोस्त अगर आप आगे की पीढ़ीयों को भविष्य के तीखे प्रश्नों का सामना करने लायक बनाना चाहते हैं, क्योंकि बचा पाने की बात तो मेरे विचार से बेमानी हो गयी है; तो आप को, हम सभी को काँटों की सेज कुबूल करने के लिए तैयार रहना चाहिए। हम सब को मिलकर देश चलाने वालों को यह बताना होगा कि अंग्रेजों के हिन्दुस्तानी प्रतिनिधियों, आप अपने आकाओं से ज्यादा खतरनाक हैं। वे हिनुदुस्तान को लूटते थे कि अपने मुल्क की तिजोरी भर सकें, पर आप तो अपने मुल्क को लूटकर विदेशी बैंकों की तिजोरियां भर रहे हैं। देश की बहुसंख्यक जनता आपका विरोध करे भी तो क्या खाकर? हर पांच साल बाद आप कुछ समय के लिए उनका पेट भरकर, अच्छे सपनों के झुनझुने पकड़ा कर, देश को लूटने के अपने 'लीज' का रिनिवल करा लेते है और जनता की पेराई फिर शुरू हो जाती है पांच सालों के लिए। इसीलिए ६३ कदम चलकर ही हांफने लगे हैं हम.... जहाँ देखो अराजकता का माहौल है, और आप... देश की सर्वोच्च संस्था.... खामोश... नाकाम... । आपके अधिकारी अकूत दौलत के मालिक हैं, इतनी दौलत कि अगर उनको ही उन्हें गिनने का काम दे दिया जाय तो वे गिन न सकें.... देश के किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं.... जो बचाते हैं वो आपकी लाठी और गोली से मरते हैं.... आपके जवान बेरोजगारी से लड़ते लड़ते भटक कर अंधेरों का रूख कर रहे हैं.... सारे विश्व में मंहगाई के दानव का हम ही सर्वाधिक प्रिय लक्ष्य हैं.... देश की आंतरिक और बाह्य सुरक्षा पर आतंकवाद का सांप अपने हज़ारों फन उठाकर हजारों प्रश्न खड़े कर रहा है और आप.... देश की सर्वोच्च संस्था.... खामोश... नाकाम... ।"
वे शांत हो गए। जैसे तूफ़ान के बाद की शांति.... । मैं चुपचाप मोटरसायकल चलाता रहा। सिमगा के पहले बनसांकरा के पास उन्होंने मुझे रोक लिया। मेरे घर तक छोड़ने की बात को उन्होंने नम्रता कितु कठोरता से ठुकरा दिया, बोले- "ज्यादा रात होने से आपको तकलीफ होगी। मेरा ठिकाना पास ही है, चला जाऊंगा। हाँ अगर मेरी बातों से आपको ठेस पहुंची हो तो क्षमा कर दीजियेगा। और वे अधिकारपूर्वक मेरे मोटरसायकल के वाईजर में रखे तिरंगे को उठा कर सड़क पार कर अँधेरे में ओझल हो गए।
बूंदा बंदी शुरू हो रही थी। मैंने अपना रैन कोट पहना और चल पड़ा। रास्ते भर सोचता रहा कि वे क्या गलत कह रहे थे। सचमुच आज मुल्क के हालत ऐसे ही तो हैं। सचमुच सरकार "सर्वजन दुखाय, सर्वजन लुटाय" के मूलमंत्र को बड़ी गंभीरता से अमलीजामा पहनाने में लिप्त है.... । रास्ते भर छत्तीसगढ़ के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों से सम्बंधित अपनी जानकारियों में रघुवीर सिंह का नाम खोजते हुए चलता रहा। सोचता हूँ पता नहीं आज स्वतंत्रता संग्राम के हमारे और वीर योद्धा जीवित होते तो उनका क्या दृष्टिकोण होता?

7 comments:

  1. बहुत सार्थक पोस्ट ....रघुवीर जी ने बिलकुल सही कहा ...काश हमारे नेता कुछ सही कदम उठाते ...सब अपनी ही तिजोरियां भरने में लगे रहते हैं ..

    ReplyDelete
  2. Shayad unhone sansadon ki aaj huyi vetan vraddhi ke bare me nahi suna!lalua abhi bhi gala faad raha hai ki "kumm kyon barhai?"

    har baar ki tarah zabardast lekh! shabdon ka santulan adbhut!

    ReplyDelete
  3. jin logon ne bhi ghulaami dekhi hai, unka yahi mat hoga. aap unse naxaliyon ke baare men poochhte to shaayad wo kahte ki achchha kar rahe hain wo log. kisee se to darr lagta hai un logon ko.

    ReplyDelete
  4. बहुत ही सारगार्वित संस्मरण ... जय हिंद

    ReplyDelete
  5. शब्द अगर हैं ब्रह्म तो कवि उसका आराधक है
    कविता अगर तपस्या है तो कवि ही उसका साधक है
    कलम छोड़ कर कभी कवि को भाया ना कोई दूजा है
    मेरी कविता मेरी देवी यही लेखनी पूजा है
    ये लिखती है ठुमक ठुमक कर चलते हुवे कन्हिया पे
    शबरी के जूठे बेरो पर और केवट की नैया पर
    छाती में साग सिया राम के लिए हुवे हनुमान लिखा
    पिता सरीखे लक्ष्मण पे भी लव कुश का संधान लिखा
    ये लिखती है गौरव गाथा झाँसी वाली रानी की
    पन्ना का बलिदान लिखा और हिम्मत वाली रानी की
    ये फटकार बिहारी के हाथो जयसिंह को लगवाती
    अंधे पृथिवी राज के हाथो गौरी का वध करवाती
    बस कविता के नाम पे हम ने काम ये कैसा कर डाला
    नाम लिया कविता का उसमे जाने क्या क्या भर डाला
    तुलसी लिखते मेरे राम पर हम सुखराम पे लिख बैठे
    सूर दास को श्याम मिले हम कांशी राम पे लिख बैठे
    कभी लिखा माँ अनसुइया सावित्री जैसी सतियों पर
    अब लिखते है जय ललिता ममता और मायावतियों पर
    ऐसा नहीं कि मुझे लुभाता जुल्फों का साया ना था
    उसकी झील सी आँखों में खो जाने का मन करता था
    मुझको भी कोयल कि कू कु बहुत ही प्यारी लगती थी
    रूं झुन रूं झुन रूं झुन सी बरसते अच्छी लगती थी
    मेरा भी प्रेयस पर गीत सुनाने का मन करता था
    उसको गोद में सर रख कर सो जाने का मन करता था
    तब मैंने भी बिंदिया काजल और कंगन के गीत लिखे
    यौवन के मद में मदमाते आलिंगन के गीत लिखे
    जिस दिन से क्षत विक्षत भारत माता का वेश दिखा
    जिसे अखंड कहा हम ने जब खंड खंड वो देश दिखा
    मै ना लिख पाया कजरारे तेज दुधारे लिख बैठा
    छूट गयी श्रींगार कि भाषा मै अंगारे लिख बैठा
    अब उन अंगारों कि भाषाएँ है मेरे गीतों में
    मेरी भारत माँ कि पीडाएं है मेरे गीतों में
    वैसे मेरी भारत माँ की पीडावो की लिस्ट तो बहुत बड़ी है | एक बार पुन: आप की लेखनी को प्रणाम करते हेव मै अपनी वाणी को विराम दूंगा ||
    वन्दे मातरम
    हर हर महादेव

    ReplyDelete
  6. पीड़ा तो है उनके मन में
    आज एक टीवी चैनल वाले ने मुझसे पूछा कि सांसदों की तनखा 50,000 हो गयी है, इस पर आपकी राय क्या है?

    मैने कहा-इनकी तनखा 1,50,000ज कर देनी चाहिए,
    कम से कम प्रश्न पूछने के 3000-5000 लेकर देश की संसद को बदनाम तो न करेंगे।

    ReplyDelete
  7. प्रणाम भैया सर्वप्रथम इस शानदार लेख के लिए मेरी शुभकामनायें स्वीकार करें आज के हालत में रघुवीर सिंह जी के विचार सत्य ही नजर आते हैं चिंतन का विषय है की जब ऐसे भारत का दर्शन रघुवीर सिंह जी जैसे सेनानी करते होंगे तो उन्हें कितनी पीड़ा होती होगी अपनी कुर्बानियां अपनी तकलीफें उन्हें व्यर्थ प्रतीत होती होगी.......
    आपने उनकी व्यथा का और उस दृश्य का जिस प्रकार चित्रण किया है वह बेहद प्रसंसनीय है पुनः अशेष शुभकामनायें ..........वन्दे मातरम !!

    ReplyDelete

मेरी हौसला-अफजाई करने का बहुत शुक्रिया.... आपकी बेशकीमती रायें मुझे मेरी कमजोरियों से वाकिफ करा, मुझे उनसे दूर ले जाने का जरिया बने, इन्हीं तमन्नाओं के साथ..... आपका हबीब.

"अपनी भाषा, हिंदी भाषा" (हिंदी में लिखें)

एक नज़र इधर भी...