समस्त सम्माननीय सुधि मित्रों को सादर नमस्कार... पिछले पंद्रह दिनों से अत्यधिक व्यस्तता ने ब्लॉग पठन - पाठन से दूर कर रखा था. अब जल्द ही नियमितता स्थापित कर लूंगा. इस दरमियान आप सभी से मिले स्नेह के लिए सादर आभार.... मित्रों, पिछले दिनों आदरणीय पंकज सुबीर जी की सुबीर संवाद सेवा में मूर्धन्य कवि/शायर स्वर्गीय श्री रमेश हठीला जी की स्मृति में तरही मुशायरे के लिए प्रदत्त मिसरे कुछ पुराने पेड़ बाकी हैं अभी तक गांव में पर कुछ अशआर कहने की कोशिश की थी, आदरणीय पंकज सर के आशीर्वाद के लिए बावक्त भेज न पाया... आज वही अशआर महफिले दानां में बाअदब पेश है...
चंद सपने, चंद साथी हैं अभी तक गाँव में |
कुछ पुराने पेड़ बाकी हैं अभी तक गाँव में |
वो चुराना आम खाकर कुछ रसीली गालियाँ,
भोर सी यादें सुहानी हैं अभी तक गाँव में |
मुह बनाकर बंदरों सा बंदरों को छेड़ना,
जागती रातें निराली हैं अभी तक गाँव में |
मेड पर वो बैठना वो हाथ लेना हाथ में,
वो फजायें मुस्कुराती हैं अभी तक गाँव में |
मैं कहाँ तुम भी कहाँ हैं गुम शहर की भीड़ में,
पनघटें हमको बुलाती हैं अभी तक गाँव में |
छोड़ कर तो आगये हम गाँव की गलियाँ हबीब
कुछ फ़साने नागहानी हैं अभी तक गाँव में |
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सादर
चंद सपने, चंद साथी हैं अभी तक गाँव में |
ReplyDeleteकुछ पुराने पेड़ बाकी हैं अभी तक गाँव में |...चलो ना उनसे मिले , फिर से स्वाभाविकता जी लें
बहुत सुन्दर,,,,
ReplyDeleteलाजवाब रचना है..हर पंक्ति काबिले तारीफ़..
दाद कबूल करें.
छोड़ कर तो आगये हम गाँव की गलियाँ हबीब
ReplyDeleteकुछ फ़साने नागहानी हैं अभी तक गाँव में |
खूबसूरत हृदयस्पर्शी प्रस्तुति,संजय जी.
कुछ और कहने के लिए अल्फाज नही मिल रहे.
बहुत बहुत आभार.
मेरे ब्लॉग पर आप आते हैं,तो दिल खुश कर देते हैं आप.
फिर से आईयेगा मेरी नई पोस्ट पर.
बेहतरीन।
ReplyDeleteचंद सपने, चंद साथी हैं अभी तक गाँव में |
ReplyDeleteकुछ पुराने पेड़ बाकी हैं अभी तक गाँव में |
जीवन की जड़ें हैं वहां .... सुंदर पंक्तिया
होती है सुनहली सुबह-ओ-शाम अभी तक गाँव में।
ReplyDeleteमर्यादा की महीन लकीर बची है अभी तक गांव में।
धूल धक्कड़ मारा मारी का है जलता बलता ये शहर।
मजे से सुकून की नींद आती है अभी तक गांव में।
दू लाईन ला अइसनहे जोड़ दे हंव गा। दिल है कि मानता नहीं है। हा हा हा
सुन्दर अभिव्यक्ति. आभार..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteनेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जयंती पर उनको शत शत नमन!
छोड़ कर तो आगये हम गाँव की गलियाँ हबीब
ReplyDeleteकुछ फ़साने नागहानी हैं अभी तक गाँव में द्य
हकीकत है। बहुत कुछ छूट गया गांव में।
एक उम्दा ग़ज़ल।
छोड़ कर तो आगये हम गाँव की गलियाँ हबीब
ReplyDeleteकुछ फ़साने नागहानी हैं अभी तक गाँव में द्य
हकीकत है। बहुत कुछ छूट गया गांव में।
एक उम्दा ग़ज़ल।
छोड़ कर तो आगये हम गाँव की गलियाँ हबीब
ReplyDeleteकुछ फ़साने नागहानी हैं अभी तक गाँव में द्य
हकीकत है। बहुत कुछ छूट गया गांव में।
एक उम्दा ग़ज़ल।
जिस्म, खाली जिस्म, चलता-घूमता-फिरता यहाँ,
ReplyDeleteरूह तो मेरी भटकती है अभी तक गाँव में!!
संजय जी, बहुत ही खूबसूरत अशार, बहुत ही उम्दा गज़ल!!
मुह बनाकर बंदरों सा बंदरों को छेड़ना,
ReplyDeleteजागती रातें निराली हैं अभी तक गाँव में |
vaah sundar ....
"मैं कहाँ तुम भी कहाँ हैं गुम शहर की भीड़ में,
ReplyDeleteपनघटें हमको बुलाती हैं अभी तक गाँव में |"
बहुत खूब!
वाह ...बहुत सही लिखा है आपने
ReplyDeleteबहुत कुछ छूट गया है गांव में .
मैं कहाँ तुम भी कहाँ हैं गुम शहर की भीड़ में,
ReplyDeleteपनघटें हमको बुलाती हैं अभी तक गाँव में |
beautiful lines
वो चुराना आम खाकर कुछ रसीली गालियाँ,
ReplyDeleteभोर सी यादें सुहानी हैं अभी तक गाँव में |
bahut mithas hoti he chura kar khane me...
khoob
वाह बहुत खूब
ReplyDeleteनई पुरानी यादो के लिए जो अभी बाकी हैं
बहुत खूब........खुबसूरत .........वो गाँव की गलियाँ |
ReplyDeleteपुरानी यादों को बड़ी सुंदरता से भावों में समेटकर खुबसुरती से प्रस्तुति करने के लिए बधाई,
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना,
WELCOME TO new post...वाह रे मंहगाई...
टिपिकल ‘हबीब’ छाप ग़ज़ल! अद्भुत!
ReplyDeleteहलाँकि अब तो गाँव में भी शहर बो दिए गए हैं और तेजी से बोये जा रहे हैं किन्तु अभी भी वहाँ कुछ संस्कार अक्षुण्ण हैं। एक आत्मीयता है, उद्गार है, प्राकृतिक जीवन शैली है... हाँ ईर्ष्या-द्वेष भी है, लोभ-लालच भी है किन्तु आनुपातिक और अपेक्षित दृष्टि से कम। भारतीय संस्कृति के दर्शन वहाँ आप कर सकते हैं। जीवन-मूल्यों का पूर्ण लोप अभी नहीं हुआ है वहाँ।
ReplyDelete♥
प्रिय बंधुवर संजय 'हबीब' जी
आपके यहां आना हमेशा ही आनंददायक होता है मेरे लिए …
चंद सपने, चंद साथी हैं अभी तक गाँव में
कुछ पुराने पेड़ बाकी हैं अभी तक गाँव में
अच्छे मतले के साथ प्यारी ग़ज़ल कही है … भावपूर्ण !
बधाई !
हार्दिक शुभकामनाओं-मंगलकामनाओं सहित…
- राजेन्द्र स्वर्णकार
.
ReplyDeleteहां, पनघट पुल्लिंग है बहुवचन होने पर यहां पनघट ही रहेगा
पनघटें औरतें , दावतें , आदि की तर्ज़ पर स्त्रीलिंग हो गया है …
देख लीजिएगा … :)
संजय जी , आपकी रचना तो पुराने दिनों की यादें तरोताजा कर दीं,सुंदर-सुंदर दृश्यों ने मंत्र-मुग्ध कर दिया.
ReplyDeleteबहुत सुंदर गजल !
ReplyDeleteआपके इस उत्कृष्ठ लेखन का आभार ...
ReplyDelete।। गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं ।।
मुह बनाकर बंदरों सा बंदरों को छेड़ना,
ReplyDeleteजागती रातें निराली हैं अभी तक गाँव में ...
वाह संजय जी ... कमाल के शेर निकाले हैं आपने ... गाँव केर आँचल से निकले हुवे हैं सभी शेर ... तरही सच में लाजवाब चल रही है गुरुदेव के ब्लॉग पर ...
मेड पर वो बैठना वो हाथ लेना हाथ में,
ReplyDeleteवो फजायें मुस्कुराती हैं अभी तक गाँव में |
मैं कहाँ तुम भी कहाँ हैं गुम शहर की भीड़ में,
पनघटें हमको बुलाती हैं अभी तक गाँव में |
wah habib sahab ap ne purani yadon ko fir se jeevant kr diya.....ak behtareen rachana ...abhar.
मैं कहाँ तुम भी कहाँ हैं गुम शहर की भीड़ में,
ReplyDeleteपनघटें हमको बुलाती हैं अभी तक गाँव में |
वाह.... वेहतरीन प्रस्तुति
गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें.
vikram7: कैसा,यह गणतंत्र हमारा.........
खूबसूरत गज़ल .. शहर में रह कर भी गांव बसा हुआ है मन में ..
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति,भावपूर्ण अच्छा मतला,.बढ़िया गजल
ReplyDeleteWELCOME TO NEW POST --26 जनवरी आया है....
गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाए.....
खूबसूरत गज़ल,शहर में रह कर भी गांव बसा हुआ है|
ReplyDeleteकुछ यादें बाकी हैं अभी तक गांव की.
ReplyDeleteशहर में कोई कितना भी संपन्न हो पर फिर भी गांव कि याद तो आती हि है..
ReplyDeleteबहूत सजीव और सुंदर चित्रण
वसंत पंचमी कि शुभकामनाये
गाँव का सजीव एवं यथार्थ चित्रण.......
ReplyDeleteक्या यही गणतंत्र है
sach kaha aapne...gaav ki yaaden bhulayi nhi ja sakti..bahut sundar rachna
ReplyDeleteबेहद ख़ूबसूरत एवं उम्दा रचना! बधाई !
ReplyDeleteबहुत अच्छा बन पड़ा है। अपने बचपन और गांव की स्मृति हो आई।
ReplyDeleteबचपन की यादों बहुत लाजबाब प्रस्तुती .
ReplyDeleteMY NEW POST ...40,वीं वैवाहिक वर्षगाँठ-पर...
मैं कहाँ तुम भी कहाँ हैं गुम शहर की भीड़ में,
ReplyDeleteपनघटें हमको बुलाती हैं अभी तक गाँव में |
...बहुत खूब! लाज़वाब गज़ल...
sundar rachana ke liye ak bar fir se badhai...shayad ap bina soochana ke bahar hain... filhal hm prateeksha to karengae hi.
ReplyDeleteमेरा अपना गांव और वहां बिताए सुख-दु:ख के क्षण याद करा दिए।
ReplyDeleteगाँव की बात ही कुछ और है.... आपने बहुत अच्छी तस्वीर खिंची है.सुंदर प्रस्तुति.
ReplyDeleteपुरवईया : आपन देश के बयार- कलेंडर
बेहतरीन लिखा है हबीब साहब... शुक्रिया !
ReplyDeleteजितनी प्रसन्नता हुई इस ग़ज़ल को पढ़कर उतना ही अफ़सोस हुआ इस ग़ज़ल को उक्त तरही मुशायरे में शामिल न हो पाने पर. लेकिन इस मात्र से कि तरही में यह शामिल न हो पायी या समय से भेजी न जासकी, इस ग़ज़ल की खूबसूरती कम नहीं हो जाती.
ReplyDeleteमिसरा ’कुछ पुराने पेड़ बाकी हैं अभी तक गाँव में..’ भावों को बहुवचन में चाहता है जिसका निर्वहन थोड़ा कठिन अवश्य है.
संजयजी, इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिये आपको हृदय से बधाई.
--सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)
चंद सपने, चंद साथी हैं अभी तक गाँव में |
ReplyDeleteकुछ पुराने पेड़ बाकी हैं अभी तक गाँव में |
...
केवल यादें है भाई जी अब..सपने और साथी नहीं रहे हैं अब वहाँ ..अलबत्ता एक बेमिसाल गज़ल लिख कर आपने बचपन में जरूर पहुंचा दिया !